जिद के आगे जीत है ! मराठा आंदोलन से तो यही साबित होता है
मनीष अस्थाना
मराठा समाज की जिद के आगे आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा , सरकार ने उन सभी मांगों को मान लिया जिस पर मराठा सामाज अड़ा था। मराठा आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मनोज जरांगे पाटिल लगातार यह बात कह रहे थे कि यदि उनकी मांगों को नहीं माना गया तो वे लाखो आंदोलनकारियों के साथ मुंबई के आजाद मैदान आएंगे और वहां से तब तक नहीं जाएंगे जब तक उन्हें आरक्षण मिल नहीं जाता है। स्वाभाविक है 25 जनवरी की रात से 27 जनवरी की दोपहर तक जिस तरह से नवी मुंबई के लोग आंदोलन से प्रभावित रहे ठीक उसी तरह मुंबई के लोग भी प्रभावित होते यदि मराठा आंदोलनकारी मुंबई पहुँच जाते।
मराठा आंदोलनकारी 21 जनवरी को जालना से मुंबई के लिए पैदल निकले थे , आंदोलनकारियों ने 5 दिन के भीतर अपनी यात्रा पूरी करते हुए नवी मुंबई पहुँच गए थे। हालांकि राज्य सरकार इन आंदोलनकारियों को लोनावाला में ही रोकना चाहती थी लेकिन मराठा समाज के जनसैलाब को रोक नहीं सकी। यह जन सैलाब जब नवी मुंबई में वाशी तक पहुँच गया और मुंबई आने की जिद पर अड़ा रहा तो सरकार के भी पसीने छूटने लगे थे। इतने बड़े जन सैलाब के पहुँचने से मराठा आंदोलनकारियों के अच्छे बर्ताव की वजह से भले ही लॉ एन्ड आर्डर ख़राब नहीं होता लेकिन आम लोगों को सड़को पर चलना जरूर दुस्वार हो जाता। लिहाजा अब सरकार की मज़बूरी बन गयी थी कि मराठा समाज की मांगों को मान लिया जाए। इसीलिए सरकार वैसा ही करती रही जैसा मराठा आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मनोज जरांगे पाटिल चाहते थे।
26 जनवरी को सवेरे से ही सरकार सक्रिय हो गयी और एक शिष्टमंडल को मनोज जरांगे पाटिल से मिलने के लिए भेजा , हालांकि पहली बार की मुलाकात में कोई बात नहीं बनी मनोज जरांगे ने शर्त रखी यदि सरकार चाहती है कि मराठा आंदोलनकारी मुंबई नहीं आए तो उनकी सभी मांगों को तत्काल माना जाए और उसके जीआर भी जारी किए जाए यदि सरकार ऐसा करती है तो वे सभी आंदोलनकारियों के साथ वाशी से ही वापस चले जाएंगे। सरकार का तंत्र 26 जनवरी की रात भर काम करता रहा मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्री भी इस काम में लगे रहे। मनोज जरांगे पाटिल का दबाव तंत्र काम कर रहा था सरकार ने उनकी मांगों को मान लिया और 27 जनवरी की सवेरे 3 बजे जरांगे को यह खुशखबरी दे दी गयी कि उनकी सभी मांगों को मान लिया गया है। 27 जनवरी की सवेरे खुद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे वाशी में आंदोलन कारियों के समक्ष आए और मनोज जरांगे का अनशन तुड़वाने के साथ ही इस आंदोलन को मराठाओं की जीत करार दिया।
यहाँ सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि यदि सरकार को मराठा समाज की सभी मांगों को मानना ही था तो फिर देर क्यों की गयी ? क्या सरकार यह चाहती थी कि उस पर कुछ इस तरह का दबाव बनाया जाए ? सरकार के इस रवैये से एक बात का संदेश तो आम लोगों में गया कि सरकार बिना दबाव में आए कोई काम नहीं करती है साथ ही यदि कोई समाज पूरी ताकत और जिद के साथ सरकार के समक्ष खड़ा होता है तो उसे जीत मिलना पक्का है। भले ही सरकार यह कह रही है कि वह मराठा समाज के विकास के लिए काम करने का संकल्प ले चुकी थी और उसने अपना वादा पूरा किया, जब वादा पूरा करना ही था तो आंदोलन कारियों के नवी मुंबई पहुँचने से पहले भी पूरा कर सकती थी लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। हालंकि सरकार इस बात को नहीं मानती है कि उसने मराठा समाज के हित में जो भी निर्णय लिए हैं वे आंदोलनकारियों की भीड़ के दबाव में ही लिए है लेकिन इस बात का अंदाजा तो कोई भी लगा सकता है। महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन की वजह से जिस तरह से जिद वाली परिपाटी की शुरुआत हुई है वह परिपाटी ठीक नहीं है क्योंकि कल कोई और समाज खड़ा हो जाएगा और दबाव बनाकर जिद पर अड़ जाएगा ?
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